पिछले तीन-चार दिनों से भीतर एक अज़ीब तरह की उधेड़बुन चल रही है। पुलवामा का हादसा न चाहते हुए भी छाती पर पांव धरे खड़ा है। शायद उसे अनेक सवालों के ज़वाब चाहिए। बिना मिले हटने वाले नहीं है। कैसे हो गया यह सबकुछ? कितनी आसानी से सारे प्रश्न कुचल दिए गए? किसी की छींट पर कोई दाग़ नहीं? क़माल हो गया?
मैं सुरक्षा मामलों का जानकार नहीं हूं। बेहद सामान्य जानकारियां एवं समझ रखता हूं। तब भी मुझे लगता है कि कुछ तो ऐसा असामान्य हुआ है, जिसकी सच्चाई बाहर आने को आतुर तो है मग़र माहौल ऐसा बना है कि कोई न चाहते हुए भी निशानदेही नहीं कर पाया।
पहला सवाल
जैसा कि आम है, हमला पाकिस्तान की ओर से प्रायोजित है। मान लिया। 300 किग्रा बारूद (इसकी मात्रा समयानुसार बदल रही है) सरहद के भीतर कैसे आ गया? 300 किग्रा बारूद? हैरत नहीं होती? हर चीज़ मीडिया के चश्में से मत देखिए। अपना विवेक भी बरतें।
जिस कार में बारूद था वो क़ाफिले के बीच चलने वाली गाड़ी से कैसे टकरा गई? कार में बारूद मग़र किसी को भी भनक तक नहीं लगी? हम मेट्रो में सफ़र करते हैं तो प्रवेश से पहले यात्री की जांच होती है मग़र कश्मीर में सड़क पर एक बारूद से भरी कार दौड़ती हुई सैना के ट्रक से टकरा जाती है और किसी को मालूम ही नहीं?
300 किलोग्राम बारूद की मात्रा का आंकड़ा मीडिया के पास उसी क्षण कहां से आया? उनकी भाषाई टोन से प्रतीत हुआ कि जैसे उस ‘परिचत’ ने वह मात्रा बताई हो जिसने उस बारूद को लादा?
दूसरा सवाल
सीआरपीएफ से संबंधित स्पष्ट इंटेलिजेंस इनपुट होने के बावजूद उचित कार्यवाई क्यों नहीं हुई? कैसे इतना बड़ा ज़ोखिम भरा कदम उठाया गया?
तीसरा सवाल
जब सुरक्षा अधिकारियों ने गृह-मंत्रालय से मांग की थी, उनके लिए स्थल मार्ग की बज़ाए हवाई मार्ग की व्यवस्था की जाए लेकिन गृह-मंत्रालय ने कार्रवाही करने की बज़ाए उस प्रस्ताव को ठुकरा दिया। बेहद गंभीर प्रश्न है कि क्यों नहीं व्यवस्था की गई? क्या सुरक्षा मामलों को लेकर गृह मंत्रालय इतना निकम्मा है कि वो परवाह तक नहीं करता ?
इनके अलावा सबसे अहम सवाल?
इस घटना से समबन्धित सारे सवाल क्योंकर ख़त्म कर दिए गए?
पुलवामा में यह हादसा होते ही आप मीडिया का व्यवहार देखें। पागलपन की हद पार की गई। ख़ूनी तेवरों एवं निर्लज्जता की पराकाष्ठा तक पहुंचा गया। लेकिन सभी सवालों को नेस्तानाबूद करने के लिए कुछ बातें कही गईं-
- यह सवालों का वक़्त नहीं है.
- सरकार के साथ खड़ें हों.
- ख़ून का बदला ख़ून.
- राजनीति नहीं होनी चाहिए.
जबकि समूचे विपक्ष ने परिपक्वता और सूझबूझ का परिचय दिया। सरकार के साथ खड़े होने की बात कही। लेकिन फिर भी मीडिया ने विपक्ष को गिरयाने का मौक़ा नहीं छोड़ा। यह सब बिल्कुल वैसा ही लग रहा था जैसे इस घटना से पूर्वनियोजित किसी रणनीति का कोई हिस्सा हो।
प्रियंका गांधी, राहुल गांधी और अरविंद केजरिवाल की भाषा संयत थी। लेकिन कुत्सित मीडिया गिद्ध की भांति अपने शिकार की तलाश में था। मिल गए नवजोत सिंह सिद्धू। लेकिन सिद्धू ने ऐसा कुछ भी नहीं कहा था जो कि आपत्तिजनक हो। फिर मीडिया उन पर क्यों टूट पड़ा? समझिए।
लेकिन इस दुखदायी घटना के बाद भी भाजपा नेताओं की हरक़तें बेहद असंवेदनशील एवं अशोभनीय थीं मग़र मीडिया ने बड़ी बेशर्मी से नज़रअंदाज़ किया। क्यों?
सांसद मनोज तिवारी एक कार्यक्रम में ठुमके लगा रहे थे। शहीद की शवयात्रा में भाजपा सांसद साक्षी महाराज वहां मौज़ूद लोगों का हाथ लहराकर अभिवादन कर रहे थे और बत्तीसी दिखा रहे थे। योगी आदित्यनाथ और अमित शाह का घटना घट जाने के बाद भी भाषण जारी थे। लेकिन गोदी मीडिया चुप रहा। लेकिन सिद्धू को ज़ायज बात कहने के बावज़ूद ट्रोल किया जा रहा है?
कहा गया कि यह सरकार से सवाल पूछने का वक़्त नहीं है। जी माना। तो क्या इससे पूर्व सरकारों से सुरक्षा चूक को लेकर भी सवाल नहीं पूछे गए हैं? ख़ुद मोदी ने मनमोहन सरकार को इन मामलों में घेरा है। आप यूट्यूब के तहख़ाने में जाकर देखें। तो क्या इससे पहले भी मीडिया सरकार की यूं तरफ़दारी करता था? जबकि नहीं।
कहा गया कि राजनीति नहीं होनी चाहिए ! ठीक बात।
लेकिन अमित शाह ने एक रैली में कहा कि यह सरकार कांग्रेस सरकार जैसी नहीं है, ज़वाब ज़रूर दिया जाएगा। और नरेन्द्र मोदी इस घटना का एक से अधिक रैलियों में जिक्र कर चुके हैं और बार-बार कर रहे हैं। इसका क्या मतलब है? सैनिकों के ख़ून को यह भुनाने का कार्य नहीं है तो और क्या है? मीडिया प्रश्नदेही क्यों नहीं कर रहा है? किसी ख़ास सोची-समझी चाल का हिस्सा क्यों नज़र आ रहा है?
और अब पूरे देशभर में कश्मीरी छात्रों एवं दूकानदारों पर हमले हो रहे हैं। उन्हें पीटा जा रहा है, उनकी दूकानें ज़बरदस्ती बंद की जा रही है। इन लोगों को पहचानें। इन्हें सैनिकों के प्रति कितनी सहानुभूति है? मीडिया ख़ामोश क्यों हैं?
इन तमाम सवालों को पाकिस्तान के पीछे ढंक देने की कोशिश की जा रही है। सरकार राष्ट्रवादी चोले में सहानुभूति बटोर रही है। यदि इतनी सीधी सपाट बात को भी नहीं समझ रहे तो क्या समझोगे?
मुझे यह घटना बेहद रहस्यमयी लगती है। कोई राजनीतिक व्यक्ति टिप्पणी नहीं करना चाहता मग़र सबके मन में बेहद गहरे प्रश्न हैं। उनकी राजनीतिक मज़बूरियां हैं। वो कुछ बोले और इधर मीडिया में कुछ तिहाड़ियों को तैनात किया गया है। जिसका फ़ायदा किसी को होगा।
इतना पढ़ने के बाद आपके ज़ेहन में बेहद डरावने प्रश्न उठ रहे होंगे। जी हां, वही मैं कहना चाहता हूं। विश्वास से परे है। लेकिन है बहुत संगीन। कोई तो होगा जो कहेगा कि इस घटना की यह सच्चाई है। हिम्मत करके बता दे कि यूं घट गई दुर्भाग्यपूर्ण घटना। यक़ीनन समय उसका स्वागत करेगा। इतिहास उसको याद रखेगा।
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