आज हमें इन चीज़ों की बहुत ज़रूरत है. भारत शांति और समृद्धि का देश रहा है. बुद्ध से लेकर गाँधी-नेहरू-अम्बेडकर का देश रहा है. ज़रूरत है कि हम इन महापुरुषों से प्रेरणा लें. लेकिन देश की जो वर्तमान हालत है, वो तो कुछ और ही है. युवा अहिंसा, शांति तथा प्रेम के रास्ते से भटक गया है और हिंसा, उन्माद तथा नफ़रत के रास्ते पर चल रहा है. यह देखकर दु:ख होता है जब धर्म के नाम पर झगड़े और हत्याएँ होती हैं. इन चीज़ों के ख़िलाफ़ जो आवाज़ उठाने वाले लोग हैं, उन्हें पकड़कर जेल में भर दिया जाता है. लेकिन अधिकतर भारतीय जनमानस को इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता.
- आयुष चतुर्वेदी
कहने को तो भारत विश्व का सबसे युवा देश है. यानी कि यहां युवाओं की संख्या सबसे अधिक है. लेकिन सवाल ये है कि यहां का युवा कर क्या रहा है? क्या उसके पास नौकरी है? स्टार्टअप शुरू करने के पैसे हैं? इंजीनियरिंग-मेडिकल-कॉमर्स-आर्ट्स की डिग्री लेकर रेलवे के फॉर्म का इंतज़ार करता हुआ युवा आखिर कितना मजबूत है हमारे विश्वगुरु भारत में?
ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिन्हें या तो आपने कभी नहीं सुना होगा, या फिर बहुत ज़्यादा सुना होगा. उद्योगपति के बच्चे बिना डिग्री के भी राजा हैं, और हम आम लोग पीएचडी के बावजूद भी रंक हैं. ये बातें मैं बढ़ा-चढ़ाकर या आपको उत्तेजित करने के लिए नहीं लिख रहा हूँ. यही सच्चाई है. पूरी नहीं तो आधी सच्चाई तो है ही.
गांधी कहते थे कि आदमी की गरीबी ही सबसे बड़ी हिंसा है. लेकिन हम गरीबी को कितना मिटा पाए? आये दिन योजनाएं बनती हैं, कानून पास होते हैं, लेकिन ज़मीनी स्तर पर कोई बदलाव नहीं दिखता.
यही कारण है कि युवा भटकता है. फिर भटका हुआ युवा हर जगह मुंह मारता फिरता है. उमैर नजमी का एक शे’र है-
“तूने छोड़ा तो किसी और से टकराऊँगा मैं
कैसे मुमकिन है कि अंधे का कहीं सर न लगे”
हालाँकि ये शे’र उन्होंने प्रेम पर लिखा था, लेकिन ये आज युवाओं की स्थिति पर भी सटीक बैठता है.
तमाम प्राइवेट नौकरियों से दुत्कारे जाने के बावजूद आज का युवा हर जगह इंटरव्यू देता है, कुछ दिन नौकरी करता है, सरकारी नौकरी का फॉर्म भरता है, ढाई-तीन साल रिजल्ट का इंतज़ार करता है, खुद के साथ-साथ परिवार को भी सम्भालता है.
ये लगभग हर मिडिल-क्लास घर की कहानी है. यहीं से समझ आता है अमीर और गरीब का फ़र्क़. सर्वहारा और बुर्जुआ का कॉन्सेप्ट तो हमने समझ लिया लेकिन सर्वहारा का कल्याण अभी भी नहीं हो पा रहा है.
देश की 70 प्रतिशत सम्पत्ति को 1 प्रतिशत अमीर लोगों ने हथियाया हुआ है. बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ खड़ी हैं, बड़े-बड़े गोरख धंधे हो रहे हैं उद्योग धंधे के नाम पर. अमीर और अमीर होता जा रहा है, गरीब और गरीब होता जा रहा है. लेकिन हमें ऐसे मुद्दों में फंसाकर बरगलाया जा रहा है जिनसे हमारा वास्ता होना ही नहीं चाहिए.
आप हिन्दू हैं और आपको बताया जा रहा है कि मुसलमान आपके दुश्मन हैं. और आप मान भी ले रहे हैं, मुसलमानों के ख़िलाफ़ भयावह माहौल बनाया जा रहा है. बड़ी संख्या में हिन्दू जनता, उसमें भी मुख्यतः युवा हिन्दू जनता मुस्लमानों से घृणा करने लगी है.
लेकिन हम कब समझेंगे कि क्या हिन्दू, क्या मुसलमान? नौकरी तो दोनों के ही पास नहीं है! इंटरव्यू की लाइन में दोनों को धक्के खाने पड़ते हैं.
आज आपकी नौकरी इस बात से तय हो रही है कि आप कौन-से कॉलेज और स्कूल से पढ़े हैं. शिक्षा का निजीकरण, और उससे भी घातक है नव-उदारवाद की नीति, इसने हमारी पूरी शिक्षा और रोजगार प्रणाली पर गहरी चोट की है. चोट क्या, बल्कि ध्वस्त कर दिया गया है. लेकिन कारण केवल यही नहीं है, कारण है कि रोजगार पैदा हो ही नहीं रहे हैं. नई कम्पनियाँ खुलने की बजाय पुरानी भी बन्द हो रही हैं. ऐसे तो किसी देश का विकास नहीं होता!
एक समस्या “ब्रेन ड्रेन” की है. और सम्भव है कि रहेगी ही. एक पढ़े-लिखे और एलिजिबल व्यक्ति को यदि अपने वतन में ढंग की नौकरी नहीं मिलेगी तो वो विदेश जाएगा ही. इसमें जितना दोष उसका है, उससे कहीं ज्यादा दोष हमारे देश की व्यवस्था का है.
पिछड़े, दलित, आदिवासी समुदाय का जीवन-स्तर अभी भी बहुत सुधरा हुआ नहीं है. आरक्षण प्रणाली ने बेशक उनके जीवन-स्तर को ऊपर उठाने में मदद की, परन्तु अभी भी समाज में छुआछूत और जातिवाद व्याप्त है और इस बात से हम सभी वाकिफ़ हैं. ऊँची जातियों ने नीची जातियों को शुरू से दबाया है. और हम कितनी भी भोंडी हिपोक्रेसी कर लें, लेकिन यह सच है. नीची जातियों के पेट में लात मारी जाती रही है, उनके कानों में शीशे पिघला दिए जाते थे, उनकी लड़कियों के साथ आये दिन बलात्कार होते थे और कहीं रपट भी नहीं लिखी जाती. ऐसा नहीं है कि ये चीज़ें बस पहले ही होती थीं, अभी-भी ऐसी बहुत सी घटनाएं सुनने में आती हैं और ना-जाने कितनी दबा दी जाती हैं.
चाहे वो जातिगत भेदभाव हो, लिंगभेद हो, धार्मिक भेदभाव हो, यह सब हमारे पूरे मुल्क़ में व्याप्त है. ऊँची जातियाँ और उनमें से भी विशेषकर ऊँची जातियों के अमीर लोग हमेशा अपना वर्चस्व बरकरार रखना चाहते हैं. इसके चलते पूरे देश का समूचा विकास असम्भव-सा दिखता है.
ये तो बात रही जाति और धर्म की, अब आते हैं कि आज का युवा पढ़ और सीख क्या रहा है?
आज हर दूसरे-तीसरे बच्चे के हाथ में आपको स्मार्टफोन दिख जाएगा. स्मार्टफोन का इतना सुलभ होना कई मायनों में लाभदायक है, और बहुत मायनों में नुकसानदायक भी. अधिकतर बच्चे दिनभर गेम्स खेलते हैं. पब्जी-फ्रीफ़ायर और तमाम फाइटिंग और रेसिंग गेम्स. ऐसे गेम्स की लत बहुत जल्दी लगती है. कुछ साल पहले तक बच्चे प्ले-स्टेशन या वीडियो गेम खेलते थे, या फिर साइबर कैफ़े में जाकर पैसे देकर कम्प्यूटर गेम्स खेलते थे. लेकिन अब हर बच्चे के हाथ में अपना खुद का गेम्स का मेला है. ये चीज़ उनकी पढ़ाई पर पूरी तरह असर डालती है.
ये तो रही बच्चों की बात. अब बात युवाओं की. युवा भी अधिकतर ये गेम्स खेलते ही हैं. उनकी पढ़ने की आदत छूट गयी है. उनकी पढ़ाई बस उनके स्कूल-कॉलेज के सिलेबस तक सीमित रहती है. वो अलग से किताबें नहीं पढ़ते. यहाँ तक कि उपन्यास भी नहीं. पढ़ने की आदत का खत्म होना, या पढ़ने की आदत का होना ही नहीं, ये बहुत घातक चीज़ है. सिर्फ स्कूल-कॉलेज और कोचिंग की पढ़ाई तक अपने ज्ञान को सीमित करके रखना तो एक विपदा है. आप कम पढ़ेंगे, तो कम जागरूक होंगे, कम सवाल पूछेंगे. यह एक ट्रैप है. मार्कस सिसेरो ने कहा था कि “ए रूम विदाउट बुक्स इज़ लाइक ए बॉडी विदाउट सोल”. यानी किताबों के बिना एक कमरा, आत्मा के बिना एक शरीर की तरह होता है. जो सजीव होते हुए भी निर्जीव है, पल-पल मर रहा है.
अपने कमरों की दीवारों पर सिर्फ़ शो-पीस, भगवान की मूर्तियाँ और गुलदस्ते ही नहीं, बल्कि कुछ किताबें भी सजाइये. और न सिर्फ़ उन्हें सजाइये बल्कि पढ़िए भी. किताबें सजाने वाले बहुत मिलते हैं, पर किताबें पढ़ने वाले बहुत कम. सो किताबें सजाने के साथ-साथ उन्हें पढ़ने, और परस्पर पढ़ने की आदत डालिये.
कोई भी बदलाव पढ़कर ही आएगा. सीखकर ही आएगा. हमारे देश में एक-से-एक लोग हुए हैं. यह शिव की भूमि है, राम की भूमि है, कृष्ण की भूमि है. गांधीवादी और समाजवादी नेता डॉक्टर राम मनोहर लोहिया ने कहा था कि- “हे भारतमाता! हमें शिव का मस्तिष्क दो, कृष्ण का हृदय दो, तथा राम का कर्म और वचन दो. हमें असीम मस्तिष्क और उन्मुक्त हृदय के साथ-साथ जीवन की मर्यादा से रचो.”
आज हमें इन चीज़ों की बहुत ज़रूरत है. भारत शांति और समृद्धि का देश रहा है. बुद्ध से लेकर गाँधी-नेहरू-अम्बेडकर का देश रहा है. ज़रूरत है कि हम इन महापुरुषों से प्रेरणा लें. लेकिन देश की जो वर्तमान हालत है, वो तो कुछ और ही है. युवा अहिंसा, शांति तथा प्रेम के रास्ते से भटक गया है और हिंसा, उन्माद तथा नफ़रत के रास्ते पर चल रहा है. यह देखकर दु:ख होता है जब धर्म के नाम पर झगड़े और हत्याएँ होती हैं. इन चीज़ों के ख़िलाफ़ जो आवाज़ उठाने वाले लोग हैं, उन्हें पकड़कर जेल में भर दिया जाता है. लेकिन अधिकतर भारतीय जनमानस को इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता.
क्या ऐसी हालत में भारत में बदलाव सम्भव है? क्या भारत में क्रांति हो सकती है? बहुत मुश्किल है. क्रांति के लिए हमारे पास तमाम मुद्दे हैं, लेकिन वो नवचेतना नहीं है. युवाओं का विजन खत्म हो गया है. हम कितना भी बढ़ा-चढ़ाकर अपने देश की बड़ाई करें, लेकिन सच्चाई हमको भी पता है कि हमारा देश सुस्त लोगों का देश है.
यहां सुस्त लोग हैं, जिन्हें कोई भी बहला-फुसला लेगा. विधायकी के चुनाव में 40 रुपये की शराब की बोतल में बिककर वोट दे देते हैं लोग. और फिर पांच साल झेलते हैं निर्दयी शासक को.
यह बात निचले स्तर से लेकर सबसे ऊपरी स्तर तक प्रासंगिक है. हम नशे में आकर वोट देते हैं. चाहे वो शराब का नशा हो या अंधभक्ति का. चार भाषण सुनकर प्रभावित होना और वोट दे देना हमारे मुल्क़ की सच्चाई है.
हम बहुत जल्दी प्रभावित हो जाते हैं. और यही चीज़ हमें गर्त में धकेल देती है. फिर हम तर्क करना भूल जाते हैं, सवाल पूछना भूल जाते हैं. जो बोल दिया जाता है, हम मान लेते हैं. और ऐसा करके नेता हमपर राज चलाते हैं.
यही काम हिटलर ने किया था, यही काम मुसोलिनी ने किया था. और यही काम आज हो रहा है. अगर हम नहीं संभले तो बहुत पछताएंगे.
ये लड़ाई विचारधारा और सभ्यता से बढ़कर खुद की लड़ाई है. ऐसे निज़ाम के ख़िलाफ़ लड़िये जो आपको नौकरी नहीं देता. उसकी मुख़ालिफ़त करिये. विरोध को नियम बना लीजिये.
कवि मुक्तिबोध ने लिखा है-
“अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठाने ही होंगे
तोड़ने ही होंगे मठ और गढ़ सब”
तो विरोध कीजिए, मांगिए नौकरी, खतरा उठाइए, बोलिये इसलिए क्योंकि नहीं बोलेंगे तो आपके बोलने का हक़ भी छीन लिया जाएगा.
बाकी इंक़लाब आज नहीं तो कल, आकर ही रहेगा. बकौल अली सरदार जाफ़री-
“इंक़लाब आएगा रफ़्तार से मायूस न हो
बहुत आहिस्ता नहीं है जो बहुत तेज़ नहीं”